Sunday, April 12, 2015
मेरा आँगन -------
मेरा आँगन -------
अभी उस दिन माँ से मिली मैं ,डबडबाई आँखों ने किया स्वागत मेरा।
सशक्त वटवृक्ष थे पिता मेरे ,ये शिथिलता ने कैसे डाल दिया था डेरा।
दोनों मौन हैं ,कुछ उदास व्यथित भी ,पर मुस्कुराहट को नहीं है बिसारा।
खुली किताब ही तो बना रहा ,बीता प्यारा,उनका जीवन सुन्दर सारा।
पिता मेरे बहुत हैं मुझको प्यारे ,इस लाड़ली को दिया अधिकार,सहारा।
मेरी अच्छी -बुरी गलती रही हो ,तब भी कभी नहीं था मुझकों नकारा।
मुझे याद नहीं पर माँ ने बताया ,उन्ही ने किया था स्वागत मेरा प्यारा।
जिगर के अपने इस टुकड़े को सींचा लहू से ,कभी नहीं था धिक्कारा।
बाबुल की गलियों में खेली-पली-बढ़ी ,अब भी सपनों में रहती हूँ उनके।
माँ की डाँट -मार -फटकार खाई,असीम अबूझे प्यार को भी देखा उनके।
जिस जमीन पर अब खड़ी हुई हूँ ,नित नया क्षितिज छूती जा रही हूँ।
मन के कोने-कोने में आश्वस्ति है ,समग्र स्नेहाशीष पाती जा रही हूँ.
जीवन में जो चाहा पा लिया है , सुन्दर नयी कल्पनाऐं सजा रही हूँ।
मेरे हर ख़ुशी-गम उनके ही साहस से , कदम बढ़ाते मुस्कुरा रही हूँ.
हाँ अपना मन उनके आँगन में रहने तक कभी नहीं उलीच पायी मैं।
कैसी हूँ बेटी - दुहिता होकर भी उनका प्रतिकार नहीं कर पायी मैं.
याद है मुझे ,मेरा वो जिद करना ,देखा था जहाँ नित एक नया सपना।
कैसे खो गए वो पल-छिन ,जहाँ मेरा था बस मेरा हर दिन वो अपना।
माँ के आँचल की वो भीनी खुशबू ,पिता के लाडो की छोटी सी दुनिया।
फूलों सी बिटिया को पाला - माना , कभी न लांघी मैंने उनकी बगिया।
अपने क्लान्त हाथों से ,अपने जीवट भर ,मेरे बेटी होने पर भी।
नहीं किया कोई भेद कभी माँ-पिता ने हम भाई -बहिनों मैं भी।
ज़माने ने कहा परायी, बेटी हूँ तो क्या ,समझती मन को उनके।
क्यों हैं व्याकुल ,कैसे हैं दुखी,किस तरह सपने कसकते हैं उनके।
हो तो नहीं सकती कभी उऋण, पर चाहती हूँ कुछ सुख उनको देना।
कर वृद्ध-शिखर चरणों का सत्कार,पाऊँ उनके स्वर्ग का एक कोना।
और ससुराल के लिए----,
मन को मेरे बना दिया है इतना सुदृढ़ ,दे रखे हैं सुसंस्कृत संस्कार।
जाओ बेटी जहाँ भी ,पाना उनका प्यार, न भूलना अपने सुविचार।
तुमने हमसे पाया जो भी दुलार ,नए जीवन में बस बाँटना वो प्यार।
न बिसराना ,मिलेंगे वहां माँ-पिता ,भाई-बहिन ,रखना सद्व्यवहार।
आज गर्व है मुझे बहुत ,जब भी मिलते हैं माँ-पिता मेरे अपने ।
पाते हैं उनकी बिटिया को वैसी ही ,जिसके देखते रहे हैं वे सपने।
मन की आँखें खुली रहें ,बनी रहूँ नतमस्तक भी,न हो कभी अहम कोई.
बस यही चाहत है,स्वप्न में भी न हो कभी मेरे द्वारा मलाल उन्हें कोई।
अलका मधुसूदन पटेल
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